AADMI BANNE KRAM MEIN

Publisher:
MANJUL PUB. HOUSE
| Author:
ANKUSH KUMAR
| Language:
English
| Format:
Paperback

198

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SKU 9789392820151 Category Tag
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158

इन कविताओं में एक भरा-पूरा लोक है, ख़ुद के अलावा पूरा परिवार है, माँ-बाबू-बीवी-बच्चे हैं, नींबू-खीरा-चाय-बिस्कुट हैं, मित्रगण हैं, अजनबी लोग हैं, आबाद दुनिया है, लेकिन अकेलेपन का एक अहसास अनवरत चलता रहता है। ऐसी कई स्थितियाँ बनती हैं, जहाँ कविता का नैरेटर ख़ुद को अकेला पाता है- कुछ जगहों पर वह अपने अकेलेपन को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त कर देता है, तो कुछ जगहों पर मौन के ज़रिए। तब एक काव्यात्मक प्रश्न मन में उठता है- जब बाहर की भीड़, बाहर के बजाए, हमारे भीतर रहने लगती है, तब अकेलापन कहीं ज़्यादा महसूस होता है? आदमी सुबह अकेले घर से निकलता है, और रात गए अकेले ही घर लौटता है, उसके बावजूद अकेले आदमी का अंतर्मन वीरान नहीं होता। और कुछ नहीं, तो वह सवालों से आबाद रहता है। यह प्रश्नाकुलता, यह बेचैनी अंकुश कुमार से कुछ मार्मिक और सुंदर कविताओं की रचना करवाती है। ‘माँएँ’ शीर्षक कविता में कवि इसी नाते माँ की सहेलियों को याद करता है। ‘स्व’ के बहाने ‘पर’ की स्मृतियों को जागृत करने का यह एक अच्छा उदाहरण है। हम आमतौर पर जिन परिवारों में रहते हैं, माँ की सहेलियों के बारे में कम ही जानते हैं। अंकुश कुमार की संवेदना वहाँ तक पहुँचने का काव्यात्मक दायित्व बख़ूबी निभाती है। काव्यात्मक दायित्वों के निर्वहन का एक महत्वपूर्ण उपकरण है- कथात्मकता; अंकुश कुमार की कविताओं में वह भरपूर है। वह दृश्य को कथा की तरह पढ़ते हैं, फिर कविता की तरह सुनाते हैं। इससे उनकी कविताएँ सहज और संप्रेषणीय बन जाती हैं। वह आसपास की दुनिया के साथ एक ज़मीनी राब्ता क़ायम कर लेते हैं। इस क्रम में वह अपने समय-समाज पर नज़र भी बनाए रखते हैं। ‘रात में’ तथा ‘ग़लत पते की चिट्ठियाँ’ जैसी मार्मिक कविताओं में यह अनुभूति सान्द्र रूप में है। वह अपने वर्तमान और यथार्थ को गहरे संशय के साथ देखते हैं। बावजूद, यह किसी जिज्ञासु राजनीतिक विश्लेषक द्वारा लिखी गई कविताएँ नहीं, बल्कि घर-परिवार-सड़क-समाज से जुड़े रहनेवाले एक आम इंसान की बोली-बानी को दर्ज करती कविताएँ हैं।

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Description

इन कविताओं में एक भरा-पूरा लोक है, ख़ुद के अलावा पूरा परिवार है, माँ-बाबू-बीवी-बच्चे हैं, नींबू-खीरा-चाय-बिस्कुट हैं, मित्रगण हैं, अजनबी लोग हैं, आबाद दुनिया है, लेकिन अकेलेपन का एक अहसास अनवरत चलता रहता है। ऐसी कई स्थितियाँ बनती हैं, जहाँ कविता का नैरेटर ख़ुद को अकेला पाता है- कुछ जगहों पर वह अपने अकेलेपन को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त कर देता है, तो कुछ जगहों पर मौन के ज़रिए। तब एक काव्यात्मक प्रश्न मन में उठता है- जब बाहर की भीड़, बाहर के बजाए, हमारे भीतर रहने लगती है, तब अकेलापन कहीं ज़्यादा महसूस होता है? आदमी सुबह अकेले घर से निकलता है, और रात गए अकेले ही घर लौटता है, उसके बावजूद अकेले आदमी का अंतर्मन वीरान नहीं होता। और कुछ नहीं, तो वह सवालों से आबाद रहता है। यह प्रश्नाकुलता, यह बेचैनी अंकुश कुमार से कुछ मार्मिक और सुंदर कविताओं की रचना करवाती है। ‘माँएँ’ शीर्षक कविता में कवि इसी नाते माँ की सहेलियों को याद करता है। ‘स्व’ के बहाने ‘पर’ की स्मृतियों को जागृत करने का यह एक अच्छा उदाहरण है। हम आमतौर पर जिन परिवारों में रहते हैं, माँ की सहेलियों के बारे में कम ही जानते हैं। अंकुश कुमार की संवेदना वहाँ तक पहुँचने का काव्यात्मक दायित्व बख़ूबी निभाती है। काव्यात्मक दायित्वों के निर्वहन का एक महत्वपूर्ण उपकरण है- कथात्मकता; अंकुश कुमार की कविताओं में वह भरपूर है। वह दृश्य को कथा की तरह पढ़ते हैं, फिर कविता की तरह सुनाते हैं। इससे उनकी कविताएँ सहज और संप्रेषणीय बन जाती हैं। वह आसपास की दुनिया के साथ एक ज़मीनी राब्ता क़ायम कर लेते हैं। इस क्रम में वह अपने समय-समाज पर नज़र भी बनाए रखते हैं। ‘रात में’ तथा ‘ग़लत पते की चिट्ठियाँ’ जैसी मार्मिक कविताओं में यह अनुभूति सान्द्र रूप में है। वह अपने वर्तमान और यथार्थ को गहरे संशय के साथ देखते हैं। बावजूद, यह किसी जिज्ञासु राजनीतिक विश्लेषक द्वारा लिखी गई कविताएँ नहीं, बल्कि घर-परिवार-सड़क-समाज से जुड़े रहनेवाले एक आम इंसान की बोली-बानी को दर्ज करती कविताएँ हैं।

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इन कविताओं में एक भरा-पूरा लोक है, ख़ुद के अलावा पूरा परिवार है, माँ-बाबू-बीवी-बच्चे हैं, नींबू-खीरा-चाय-बिस्कुट हैं, मित्रगण हैं, अजनबी लोग हैं, आबाद दुनिया है, लेकिन अकेलेपन का एक अहसास अनवरत चलता रहता है। ऐसी कई स्थितियाँ बनती हैं, जहाँ कविता का नैरेटर ख़ुद को अकेला पाता है- कुछ जगहों पर वह अपने अकेलेपन को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त कर देता है, तो कुछ जगहों पर मौन के ज़रिए। तब एक काव्यात्मक प्रश्न मन में उठता है- जब बाहर की भीड़, बाहर के बजाए, हमारे भीतर रहने लगती है, तब अकेलापन कहीं ज़्यादा महसूस होता है? आदमी सुबह अकेले घर से निकलता है, और रात गए अकेले ही घर लौटता है, उसके बावजूद अकेले आदमी का अंतर्मन वीरान नहीं होता। और कुछ नहीं, तो वह सवालों से आबाद रहता है। यह प्रश्नाकुलता, यह बेचैनी अंकुश कुमार से कुछ मार्मिक और सुंदर कविताओं की रचना करवाती है। ‘माँएँ’ शीर्षक कविता में कवि इसी नाते माँ की सहेलियों को याद करता है। ‘स्व’ के बहाने ‘पर’ की स्मृतियों को जागृत करने का यह एक अच्छा उदाहरण है। हम आमतौर पर जिन परिवारों में रहते हैं, माँ की सहेलियों के बारे में कम ही जानते हैं। अंकुश कुमार की संवेदना वहाँ तक पहुँचने का काव्यात्मक दायित्व बख़ूबी निभाती है। काव्यात्मक दायित्वों के निर्वहन का एक महत्वपूर्ण उपकरण है- कथात्मकता; अंकुश कुमार की कविताओं में वह भरपूर है। वह दृश्य को कथा की तरह पढ़ते हैं, फिर कविता की तरह सुनाते हैं। इससे उनकी कविताएँ सहज और संप्रेषणीय बन जाती हैं। वह आसपास की दुनिया के साथ एक ज़मीनी राब्ता क़ायम कर लेते हैं। इस क्रम में वह अपने समय-समाज पर नज़र भी बनाए रखते हैं। ‘रात में’ तथा ‘ग़लत पते की चिट्ठियाँ’ जैसी मार्मिक कविताओं में यह अनुभूति सान्द्र रूप में है। वह अपने वर्तमान और यथार्थ को गहरे संशय के साथ देखते हैं। बावजूद, यह किसी जिज्ञासु राजनीतिक विश्लेषक द्वारा लिखी गई कविताएँ नहीं, बल्कि घर-परिवार-सड़क-समाज से जुड़े रहनेवाले एक आम इंसान की बोली-बानी को दर्ज करती कविताएँ हैं।

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