बाकी बचे कुछ लोग | BAKI BACHE KUCHH LOG

Publisher:
Setu Prakashan
| Author:
ANIL KARMELE
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback

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अनिल करमेले के इस संग्रह की कविताओं का स्पैक्ट्रम बड़ा है इसलिए इन्हें महज एकरेखीय ढंग से, किसी केंद्रीयता में सीमित करके नहीं देखा जा सकता। कविताओं के विषय, चिंताएँ और सरोकार व्यापक हैं, विविध हैं। इनकी निर्मिति अपने समय के साथ सजग साक्षात्कार और साक्ष्य से संभव हुई है। इन कविताओं से गुजरते हुए हम वर्तमान यंत्रणाओं, विद्रूपताओं, विडंबनाओं की अपनी ऐतिहासिकता के साथ कुछ अधिक पहचान कर सकते हैं। उन्होंने तमाम समकालीन घटनाओं के प्रभावों, व्यग्रताओं और मुश्किलों को कविता में सँभाल कर रख दिया है। भौतिक सफलताओं के पीछे की उदासी और उज्ज्वल तारीखों की कालिख, मलिनता और मायाजाल की शिनाख्त भी उनके पास स्पष्ट है। जब वे टेलीग्राम और चिट्रियों की हमारी दुनिया से विदाई को पेश करते हैं तो वह हमारे किसी जीवंत संबंध की विदाई का शोकगीत भी बन जाता है। इसी समझ के कारण वे किसी कलपते हुए नॉस्टेल्जिया से अलग, प्रस्तुत समय के बदलाव को समाहित करते हुए ‘छिंदवाड़ाक’, ‘छोड़ा हुआ शहर’, ‘इस तरह जीवन’ जैसी कविताएँ लिख पाते हैं, जिनमें हमारे विस्थापन की अनुभूति के स्पर्श का, एक सार्वजनिकता का सामर्थ्य भी विन्यस्त हो जाता है। संस्कृति की सत्तामूलक राजनीति का वे एक विपक्ष भी तैयार करते हैं। उन्हें एक कवि के उत्तरदायित्व एवं पक्ष का भान है। निष्क्रियता की नागरिकता की पड़ताल करते हुए, अपनी खुद की भूमिका को भी वे नहीं बख्शते। कविताओं में इसकी गवाही है। वे अपने उस अवसाद और आत्मावलोकन का, जिससे कोई भी विचारशील और संवेदनशील आदमी बच नहीं सकता, ‘डायरी’ या ‘राहत’ जैसी कविताओं में कई तरह से दर्ज करते हैं। किसी सिनेमाई दृश्य से कविता मुमकिन करने का एक विलक्षण उदाहरण उनकी बैंडिट क्वीन संबंधी कविता में देखा जा सकता है। इस संग्रह के अनेक आयामों में से प्रेम और घरगृहस्थी का भी आयाम प्रबल है। प्रेम कविताओं में लिजलिजी भावुकता से अलग कुछ ठोस पंक्तियाँ संभव हुई हैं : “हर पूर्णता को अधूरेपन से गुजरना होता है” या ‘प्रेम के दो बरस’ में संबंध एक अंतराल के बाद किस तरह अलंघ्य और अप्राप्य हो जाता है, इसे कविता में स्पंदित होता देखा जा सकता है। सामाजिक समस्याओं और जड़ताओं को भी वे अपनी परिधि में लेते हैं। उसके आगमन पर’, ‘गोरे रंग का मर्सिया’ एक तरह से स्त्री विमर्श का भी हिस्सा हैं। हमारे समय की अनिश्चितताओं और एक व्यक्ति की असहायता से ये कविताएँ बेखबर नहीं हैं। उनकी कविताओं में हमारे वक़्त की तमाम हलचलों और आशंकाओं पर संवेदनशील, सजग निगाह है। किसी के गायब हो जाने की खबर की व्यग्रता और उससे उबरने की उम्मीद भरी आकांक्षा की कविता ‘तस्वीर’, इस संदर्भ में एक प्रखर उदाहरण है। कई जगह अनिल अपने मितकथन से सुखद रूप से विस्मित करते हैं, इस संदर्भ में थकान’ कविता दृष्टव्य है। आशा की जा सकती है कि अनिल करमेले की काव्य-यात्रा आगे कई नयी जगहों, दिशाओं में अग्रसर होगी, जिसकी सूचना और आश्वस्ति इसी संग्रह में से निकल कर आती है।

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अनिल करमेले के इस संग्रह की कविताओं का स्पैक्ट्रम बड़ा है इसलिए इन्हें महज एकरेखीय ढंग से, किसी केंद्रीयता में सीमित करके नहीं देखा जा सकता। कविताओं के विषय, चिंताएँ और सरोकार व्यापक हैं, विविध हैं। इनकी निर्मिति अपने समय के साथ सजग साक्षात्कार और साक्ष्य से संभव हुई है। इन कविताओं से गुजरते हुए हम वर्तमान यंत्रणाओं, विद्रूपताओं, विडंबनाओं की अपनी ऐतिहासिकता के साथ कुछ अधिक पहचान कर सकते हैं। उन्होंने तमाम समकालीन घटनाओं के प्रभावों, व्यग्रताओं और मुश्किलों को कविता में सँभाल कर रख दिया है। भौतिक सफलताओं के पीछे की उदासी और उज्ज्वल तारीखों की कालिख, मलिनता और मायाजाल की शिनाख्त भी उनके पास स्पष्ट है। जब वे टेलीग्राम और चिट्रियों की हमारी दुनिया से विदाई को पेश करते हैं तो वह हमारे किसी जीवंत संबंध की विदाई का शोकगीत भी बन जाता है। इसी समझ के कारण वे किसी कलपते हुए नॉस्टेल्जिया से अलग, प्रस्तुत समय के बदलाव को समाहित करते हुए ‘छिंदवाड़ाक’, ‘छोड़ा हुआ शहर’, ‘इस तरह जीवन’ जैसी कविताएँ लिख पाते हैं, जिनमें हमारे विस्थापन की अनुभूति के स्पर्श का, एक सार्वजनिकता का सामर्थ्य भी विन्यस्त हो जाता है। संस्कृति की सत्तामूलक राजनीति का वे एक विपक्ष भी तैयार करते हैं। उन्हें एक कवि के उत्तरदायित्व एवं पक्ष का भान है। निष्क्रियता की नागरिकता की पड़ताल करते हुए, अपनी खुद की भूमिका को भी वे नहीं बख्शते। कविताओं में इसकी गवाही है। वे अपने उस अवसाद और आत्मावलोकन का, जिससे कोई भी विचारशील और संवेदनशील आदमी बच नहीं सकता, ‘डायरी’ या ‘राहत’ जैसी कविताओं में कई तरह से दर्ज करते हैं। किसी सिनेमाई दृश्य से कविता मुमकिन करने का एक विलक्षण उदाहरण उनकी बैंडिट क्वीन संबंधी कविता में देखा जा सकता है। इस संग्रह के अनेक आयामों में से प्रेम और घरगृहस्थी का भी आयाम प्रबल है। प्रेम कविताओं में लिजलिजी भावुकता से अलग कुछ ठोस पंक्तियाँ संभव हुई हैं : “हर पूर्णता को अधूरेपन से गुजरना होता है” या ‘प्रेम के दो बरस’ में संबंध एक अंतराल के बाद किस तरह अलंघ्य और अप्राप्य हो जाता है, इसे कविता में स्पंदित होता देखा जा सकता है। सामाजिक समस्याओं और जड़ताओं को भी वे अपनी परिधि में लेते हैं। उसके आगमन पर’, ‘गोरे रंग का मर्सिया’ एक तरह से स्त्री विमर्श का भी हिस्सा हैं। हमारे समय की अनिश्चितताओं और एक व्यक्ति की असहायता से ये कविताएँ बेखबर नहीं हैं। उनकी कविताओं में हमारे वक़्त की तमाम हलचलों और आशंकाओं पर संवेदनशील, सजग निगाह है। किसी के गायब हो जाने की खबर की व्यग्रता और उससे उबरने की उम्मीद भरी आकांक्षा की कविता ‘तस्वीर’, इस संदर्भ में एक प्रखर उदाहरण है। कई जगह अनिल अपने मितकथन से सुखद रूप से विस्मित करते हैं, इस संदर्भ में थकान’ कविता दृष्टव्य है। आशा की जा सकती है कि अनिल करमेले की काव्य-यात्रा आगे कई नयी जगहों, दिशाओं में अग्रसर होगी, जिसकी सूचना और आश्वस्ति इसी संग्रह में से निकल कर आती है।

About Author

जन्म : 2 मार्च, 1965 छिंदवाड़ा (मध्य प्रदेश) शिक्षा : वाणिज्य एवं हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर संप्रति : सीएजी के अंतर्गत वरिष्ठ लेखापरीक्षा अधिकारी प्रकाशन : सभी महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। कविताओं के भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित कृतियाँ : ‘ईश्वर के नाम पर’, ‘बाकी बचे कुछ लोग’ कविता संग्रह प्रकाशित। पुरस्कार : कविता संग्रह ईश्वर के नाम पर’ के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का दुष्यंत कुमार पुरस्कार

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