Daraspothi (HB)

Publisher:
Rajkamal
| Author:
Akhilesh
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback

320

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एक चित्रकार की सुचिन्तित दृष्टि जब अपने समकालीन कला-समय पर पड़ती है, तब उससे पैदा होनेवाली एक व्यापक कला अवधारणा के तमाम सारे सीमान्त एकबारगी आलोकित हो उठते हैं। वर्तमान चित्रकला परिदृश्य पर अपने अनूठेपन एवं अमूर्त्तन के लिए समादृत रहे चित्रकार अखिलेश के निबन्धों की यह सारगर्भित अन्विति अपनी बसाहट, कला-अनुभव, अचूक प्रश्नाकुलता के चलते एक अविस्मरणीय गद्य पाठ बन पड़ी है। अखिलेश की यह ‘दरसपोथी’ एक हद तक कबीर का वह ‘रामझरोखा’ बन सकी है, जहाँ बैठकर रंगों की अत्यन्त सूक्ष्म व जटिल जवाबदेही का मुजरा वे पूरे संयत भाव से ले पाए हैं। इसी कारण इन निबन्धों के सम्बन्ध में यह देखना प्रीतिकर है कि निबन्धकार मूर्धन्य कलाकारों से संवाद, विमर्श एवं मीमांसा के उपक्रम में अपनी भूमिका एक सहज जिज्ञासु एवं कला अध्येता की बना सका है, जिसके कारण किसी प्रकार की नवधा-भक्ति में तिरोहित होने से यह सलोनी किताब बच सकी है।
एक अर्थ में यह पुस्तक शास्त्रीय संगीत के उस विलम्बित ख्याल की तरह लगती है, जिसमें उसके गानेवाले कलाकार के लिए भी सदैव एक चुनौती बनी रहती है कि वह कोई नया सुर लगाते वक़्त अथवा पुरानी सरगम की बढ़त करते हुए उसी क्षण एक नई ‘उपज’ को आकार दे रहा होता है। अखिलेश ने अपने इन उन्नीस निबन्धों में ठीक इसी विचार को बेहद रचनात्मक ढंग से बरतते हुए ढेरों उपजों का सुर-लोक बना डाला है। यह अकारण नहीं है कि अखिलेश अपने पूर्ववर्ती और समवर्ती कलाकारों पर लिखते हुए उसे ‘अचम्भे का रोना’ कहते हैं। वे रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रकार मानस को पढ़ते हुए एक जगह लिखते हैं : ‘रवीन्द्र की स्याही संकोच से सत्य की तरफ़ जाती दीखती है। इसमें आत्म-सच का प्रकाश फैला है; इन रेखांकनों में दावा नहीं कवि का कातर भाव है।’ तो दूसरी ओर जगदीश स्वामीनाथन के लिए उनका कथन क़ाबिलेग़ौर है : ‘वे लघु चित्रों की बात करते हैं आदिवासी नज़रिये से। वे रंगाकाश रचते हैं लोक चेतना से। स्वामी का लेखन इतिहास चेतना से भरा हुआ है। स्वामी के चित्र उससे मुक्त हैं। यह अखिलेश की कवि-दृष्टि है, जिसमें एक कलाकार या चित्रकार होने की सारी सम्भावना पूरी उदात्तता के साथ उस तरह सूर्याभिमुख है, स्वयं जिस तरह शाश्वत को खोजनेवाली एक सहृदय की निगाह सत्य की रश्मियों से चौंधियाती है, बार-बार अचम्भित होती है।
इन निबन्धों को पढ़ने से इस तथ्य को बल मिलता है कि अखिलेश जहाँ बेहद ग़ैर-पारम्परिक ढंग से अमूर्तन के धरातल पर स्वयं के चित्र बनाने की प्रक्रिया में बेहद आधुनिक और लीक से थोड़ा निर्बन्ध सर्जक का बाना अख्तियार करते हैं, वहीं वे एक निबन्धकार एवं कला-आलोचक के रूप में कहीं पारम्परिक सहृदय की तरह दृश्य पर नज़र आते हैं। उनकी कला-आलोचना दरअसल अपने रंगलोक के आदि प्रश्नों से अलग हटकर सांसारिक ऐन्द्रियता में पूरे लालित्य और प्रांजलता के साथ कुछ अतिरिक्त खोजती, बीनती, बुहारती आगे बढ़ती है।
वे इतिहास के सन्दर्भों, सांस्कृतिक स्थापनाओं के गह्वर सम्मोहन, समय और भूगोल की एकतान जुगलबन्दी, स्मृतियों की धूप-छाँही रंगोली तथा कला के निर्मम सत्य की आत्यन्तिक पड़ताल से अपने निबन्धों की भाषा अर्जित करते हैं। यह देखना भी अधिकांश लेखों में इस अर्थ में बेहद प्रासंगिक है कि कई बार आप जैसे ही किसी कलाकार की गहरी मीमांसा में मुब्तिला रहते हैं, अखिलेश हाथ पकड़कर अचानक ही निहायत भौतिक समय में आपको ले जाते हैं और महत्त्वपूर्ण या ग़ैर-इरादतन महत्त्वपूर्ण बन रही किसी तिथि या घटना का साक्षी बना डालते हैं। कई दफ़े वह अपने ढंग से कलाकार की फ़ितरत और उसके द्वारा उत्पन्न उस दृश्यावली को टटोल रहे होते हैं, जहाँ स्वयं वह कलाकार जा नहीं पाया है; तभी एकाएक वह सिलसिला टूटता है और अखिलेश उस व्यक्ति की कला सम्भावना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में सन्दर्भित करते हुए किसी दूसरे महान चित्रकार, लेखक या कलाकार का उद्धरण देकर हमारे आस्वाद में एक नए क़िस्म की मिठास घोल देते हैं। कहने का आशय इतना है कि अखिलेश स्वयं कौतुक पर विश्वास करते हैं और गाहे-ब-गाहे हमें ऐसी परिस्थिति में डालने में भी संकोच नहीं करते, जिसके अदम्य मोह से निकलकर वापस अपनी दुनिया में आना जल्दी सम्भव नहीं हो पाता।
इन निबन्धों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अखिलेश ने अपने इस कलात्मक विमर्श की पुस्तक में एक ऐसे समानान्तर संसार की पुनर्रचना की है, जो अब तक अपने सबसे शाश्वत एवं उदात्त अर्थों में सिर्फ़ मिथकीय एवं पौराणिक अवधारणाओं में बसती रही है। मगर इसी क्षण यह भी कहने का मन होता है कि एक चित्रकार की मौलिक विचार सम्पदा ने कलाओं पर विमर्श के बहाने, एक ऐसे मिथकीय संसार का सृजन कर दिया है जो आज के भौतिकवादी और बाज़ार आक्रान्त समय में उसका एक निहायत दिलचस्प और मननशील प्रतिरूपक बन गया है। हम इस तरह की शब्दावली को पढ़ते हुए अपने लिए उस नई सभ्यता का थोड़ी देर के लिए वरण भी कर पा रहे हैं जो सौभाग्य से अभी भी साहित्य और कलाओं के संसार में साँस ले रही है। क्या यह नहीं लगता कि रवीन्द्रनाथ टैगोर, नारायण श्रीधर बेन्द्रे, मक़बूल फ़िदा हुसेन, जगदीश स्वामीनाथन, के.जी. सुब्रमण्यम, भूपेन खख्खर, जनगण सिंह श्याम, नीलमणि देवी, जेराम पटेल, किशोर उमरेकर, अमृतलाल वेगड़ एवं मनोग्राही कला-मनन के बहाने अखिलेश रंग-शिखर पर दीया बार रहे हैं।
—यतीन्द्र मिश्र
 

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एक चित्रकार की सुचिन्तित दृष्टि जब अपने समकालीन कला-समय पर पड़ती है, तब उससे पैदा होनेवाली एक व्यापक कला अवधारणा के तमाम सारे सीमान्त एकबारगी आलोकित हो उठते हैं। वर्तमान चित्रकला परिदृश्य पर अपने अनूठेपन एवं अमूर्त्तन के लिए समादृत रहे चित्रकार अखिलेश के निबन्धों की यह सारगर्भित अन्विति अपनी बसाहट, कला-अनुभव, अचूक प्रश्नाकुलता के चलते एक अविस्मरणीय गद्य पाठ बन पड़ी है। अखिलेश की यह ‘दरसपोथी’ एक हद तक कबीर का वह ‘रामझरोखा’ बन सकी है, जहाँ बैठकर रंगों की अत्यन्त सूक्ष्म व जटिल जवाबदेही का मुजरा वे पूरे संयत भाव से ले पाए हैं। इसी कारण इन निबन्धों के सम्बन्ध में यह देखना प्रीतिकर है कि निबन्धकार मूर्धन्य कलाकारों से संवाद, विमर्श एवं मीमांसा के उपक्रम में अपनी भूमिका एक सहज जिज्ञासु एवं कला अध्येता की बना सका है, जिसके कारण किसी प्रकार की नवधा-भक्ति में तिरोहित होने से यह सलोनी किताब बच सकी है।
एक अर्थ में यह पुस्तक शास्त्रीय संगीत के उस विलम्बित ख्याल की तरह लगती है, जिसमें उसके गानेवाले कलाकार के लिए भी सदैव एक चुनौती बनी रहती है कि वह कोई नया सुर लगाते वक़्त अथवा पुरानी सरगम की बढ़त करते हुए उसी क्षण एक नई ‘उपज’ को आकार दे रहा होता है। अखिलेश ने अपने इन उन्नीस निबन्धों में ठीक इसी विचार को बेहद रचनात्मक ढंग से बरतते हुए ढेरों उपजों का सुर-लोक बना डाला है। यह अकारण नहीं है कि अखिलेश अपने पूर्ववर्ती और समवर्ती कलाकारों पर लिखते हुए उसे ‘अचम्भे का रोना’ कहते हैं। वे रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रकार मानस को पढ़ते हुए एक जगह लिखते हैं : ‘रवीन्द्र की स्याही संकोच से सत्य की तरफ़ जाती दीखती है। इसमें आत्म-सच का प्रकाश फैला है; इन रेखांकनों में दावा नहीं कवि का कातर भाव है।’ तो दूसरी ओर जगदीश स्वामीनाथन के लिए उनका कथन क़ाबिलेग़ौर है : ‘वे लघु चित्रों की बात करते हैं आदिवासी नज़रिये से। वे रंगाकाश रचते हैं लोक चेतना से। स्वामी का लेखन इतिहास चेतना से भरा हुआ है। स्वामी के चित्र उससे मुक्त हैं। यह अखिलेश की कवि-दृष्टि है, जिसमें एक कलाकार या चित्रकार होने की सारी सम्भावना पूरी उदात्तता के साथ उस तरह सूर्याभिमुख है, स्वयं जिस तरह शाश्वत को खोजनेवाली एक सहृदय की निगाह सत्य की रश्मियों से चौंधियाती है, बार-बार अचम्भित होती है।
इन निबन्धों को पढ़ने से इस तथ्य को बल मिलता है कि अखिलेश जहाँ बेहद ग़ैर-पारम्परिक ढंग से अमूर्तन के धरातल पर स्वयं के चित्र बनाने की प्रक्रिया में बेहद आधुनिक और लीक से थोड़ा निर्बन्ध सर्जक का बाना अख्तियार करते हैं, वहीं वे एक निबन्धकार एवं कला-आलोचक के रूप में कहीं पारम्परिक सहृदय की तरह दृश्य पर नज़र आते हैं। उनकी कला-आलोचना दरअसल अपने रंगलोक के आदि प्रश्नों से अलग हटकर सांसारिक ऐन्द्रियता में पूरे लालित्य और प्रांजलता के साथ कुछ अतिरिक्त खोजती, बीनती, बुहारती आगे बढ़ती है।
वे इतिहास के सन्दर्भों, सांस्कृतिक स्थापनाओं के गह्वर सम्मोहन, समय और भूगोल की एकतान जुगलबन्दी, स्मृतियों की धूप-छाँही रंगोली तथा कला के निर्मम सत्य की आत्यन्तिक पड़ताल से अपने निबन्धों की भाषा अर्जित करते हैं। यह देखना भी अधिकांश लेखों में इस अर्थ में बेहद प्रासंगिक है कि कई बार आप जैसे ही किसी कलाकार की गहरी मीमांसा में मुब्तिला रहते हैं, अखिलेश हाथ पकड़कर अचानक ही निहायत भौतिक समय में आपको ले जाते हैं और महत्त्वपूर्ण या ग़ैर-इरादतन महत्त्वपूर्ण बन रही किसी तिथि या घटना का साक्षी बना डालते हैं। कई दफ़े वह अपने ढंग से कलाकार की फ़ितरत और उसके द्वारा उत्पन्न उस दृश्यावली को टटोल रहे होते हैं, जहाँ स्वयं वह कलाकार जा नहीं पाया है; तभी एकाएक वह सिलसिला टूटता है और अखिलेश उस व्यक्ति की कला सम्भावना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में सन्दर्भित करते हुए किसी दूसरे महान चित्रकार, लेखक या कलाकार का उद्धरण देकर हमारे आस्वाद में एक नए क़िस्म की मिठास घोल देते हैं। कहने का आशय इतना है कि अखिलेश स्वयं कौतुक पर विश्वास करते हैं और गाहे-ब-गाहे हमें ऐसी परिस्थिति में डालने में भी संकोच नहीं करते, जिसके अदम्य मोह से निकलकर वापस अपनी दुनिया में आना जल्दी सम्भव नहीं हो पाता।
इन निबन्धों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अखिलेश ने अपने इस कलात्मक विमर्श की पुस्तक में एक ऐसे समानान्तर संसार की पुनर्रचना की है, जो अब तक अपने सबसे शाश्वत एवं उदात्त अर्थों में सिर्फ़ मिथकीय एवं पौराणिक अवधारणाओं में बसती रही है। मगर इसी क्षण यह भी कहने का मन होता है कि एक चित्रकार की मौलिक विचार सम्पदा ने कलाओं पर विमर्श के बहाने, एक ऐसे मिथकीय संसार का सृजन कर दिया है जो आज के भौतिकवादी और बाज़ार आक्रान्त समय में उसका एक निहायत दिलचस्प और मननशील प्रतिरूपक बन गया है। हम इस तरह की शब्दावली को पढ़ते हुए अपने लिए उस नई सभ्यता का थोड़ी देर के लिए वरण भी कर पा रहे हैं जो सौभाग्य से अभी भी साहित्य और कलाओं के संसार में साँस ले रही है। क्या यह नहीं लगता कि रवीन्द्रनाथ टैगोर, नारायण श्रीधर बेन्द्रे, मक़बूल फ़िदा हुसेन, जगदीश स्वामीनाथन, के.जी. सुब्रमण्यम, भूपेन खख्खर, जनगण सिंह श्याम, नीलमणि देवी, जेराम पटेल, किशोर उमरेकर, अमृतलाल वेगड़ एवं मनोग्राही कला-मनन के बहाने अखिलेश रंग-शिखर पर दीया बार रहे हैं।
—यतीन्द्र मिश्र
 

About Author

अखिलेश

सुप्रसिद्ध चित्रकार, गद्य लेखक, अनुवादक।

जनम : 28 अगस्त, 1956; इन्‍दौर।

शिक्षा : नेशनल डिप्‍लोमा इन पेंटिंग (1978)।

प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ : ‘दरसपोथी’, ‘अचम्‍भे का रोना’, ‘शीर्षक नहीं’, ‘देखना’, ‘मक़बूल फ़िदा हुसैन’ (कला-लेख); ‘मक़बूल’ (मक़बूल फ़िदा हुसैन की जीवनी का); ‘आप-बीती’ (मार्क शागाल की आत्‍मकथा का अनुवाद)।

सम्‍मान : ‘भारत भवन बिनाले सम्‍मान’, ‘रज़ा फ़ाउंडेशन सम्‍मान’, ‘कला कौस्‍तुभ सम्‍मान’, ‘वागेश्‍वरी सम्‍मान’, संस्‍कृति मंत्रालय, भारत सरकार की ‘सीनियर आर्टिस्‍ट फ़ेलोशिप’ आदि। 

सम्पर्क : 56akhilesh@gmail.com

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