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अपना समय नहीं | APNA SAMAY NAHIN
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किस्सागो रो रहा है | KISSAGO RO RAHA HAI
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गीली मिट्टी पर पंजों के निशान | GEELI MITTI PAR PANJO KE NISHAN
Publisher:
Setu Prakashan
| Author:
FARID KHAN
| Language:
Hindi
| Format:
Paperback
₹260 ₹234
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In stock
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3-5 Days
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SKU:
SKU
9789395160209
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
144
यह एक चकित करने वाला तथ्य है कि हिन्दी कविता में प्रस्थान बिन्दु या पैराडाइम शिफ्ट हमेशा हाशिये में प्रकट होने वाली आकस्मिक कविताओं के द्वारा हुआ है। चाहे मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में, राजकमल चौधरी की कविता मुक्ति प्रसंग, धूमिल की पटकथा, सौमित्र मोहन की लुकमान अली, आलोकधन्वा की गोली दागो पोस्टर आदि कविताएँ हाशिये में अचानक कौंधने वाली ऐसी कविताएँ थीं, जिन्होंने मुख्यधारा की तत्कालीन स्वीकृत कविताओं की दिशा बदल दी। फ़रीद की कविता एक और बाघ ऐसी ही अकस्मात् कविता थी, जिसने एक दशक पहले, अँधेरे में किसी कंदील की तरह मेरा ध्यान खींचा था। इस कविता को पढ़कर मेरे प्रिय और अँग्रेज़ी के विख्यात लेखक अमिताव कुमार ने टिप्पणी की थी कि बाघ कविता के पोस्टर्स छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के जंगलों के हर पेड़ पर टाँग देना चाहिए। जिससे लोग समझ सकें अपने समय की सच्चाइयाँ… कि उन्हें भी अब संग्रहालय या चिड़ियाघरों में रखने की परियोजना ज़ोरों से चल रही है! यह कविता जब आयी थी तब छत्तीसगढ़ में सलवाजुडूम चल रहा था, फ़िल्म कांतारा में जिसकी परिणति दिखाई पड़ती है, यह उसी मार्मिकता की कविता है। इसके बाघ की आँखों में हरियाली का स्वप्न है जिसे चारों तरफ़ से घेरकर मारा जाता है। असल में कविता ने फ़ासिज्म की आहट को भी पहचाना था। इस सन्दर्भ में यह कविता अपनी अर्थव्यापकता में बहुत दूर तक जाती है।
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Description
यह एक चकित करने वाला तथ्य है कि हिन्दी कविता में प्रस्थान बिन्दु या पैराडाइम शिफ्ट हमेशा हाशिये में प्रकट होने वाली आकस्मिक कविताओं के द्वारा हुआ है। चाहे मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में, राजकमल चौधरी की कविता मुक्ति प्रसंग, धूमिल की पटकथा, सौमित्र मोहन की लुकमान अली, आलोकधन्वा की गोली दागो पोस्टर आदि कविताएँ हाशिये में अचानक कौंधने वाली ऐसी कविताएँ थीं, जिन्होंने मुख्यधारा की तत्कालीन स्वीकृत कविताओं की दिशा बदल दी। फ़रीद की कविता एक और बाघ ऐसी ही अकस्मात् कविता थी, जिसने एक दशक पहले, अँधेरे में किसी कंदील की तरह मेरा ध्यान खींचा था। इस कविता को पढ़कर मेरे प्रिय और अँग्रेज़ी के विख्यात लेखक अमिताव कुमार ने टिप्पणी की थी कि बाघ कविता के पोस्टर्स छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के जंगलों के हर पेड़ पर टाँग देना चाहिए। जिससे लोग समझ सकें अपने समय की सच्चाइयाँ… कि उन्हें भी अब संग्रहालय या चिड़ियाघरों में रखने की परियोजना ज़ोरों से चल रही है! यह कविता जब आयी थी तब छत्तीसगढ़ में सलवाजुडूम चल रहा था, फ़िल्म कांतारा में जिसकी परिणति दिखाई पड़ती है, यह उसी मार्मिकता की कविता है। इसके बाघ की आँखों में हरियाली का स्वप्न है जिसे चारों तरफ़ से घेरकर मारा जाता है। असल में कविता ने फ़ासिज्म की आहट को भी पहचाना था। इस सन्दर्भ में यह कविता अपनी अर्थव्यापकता में बहुत दूर तक जाती है।
About Author
फ़रीद ख़ाँ जन्म : 29 जनवरी 1975 पटना में पले-बढ़े। पटना विश्वविद्यालय से उर्दू में एम.ए., पटना इप्टा से वर्षों तक जुड़ाव । भारतेन्दु नाट्य अकादमी, लखनऊ से नाट्य-कला में दो वर्षीय (1998-2000) प्रशिक्षण । फिलहाल मुम्बई में कथा-पटकथा लेखन में सक्रिय ।
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