Parchhain ka Sach

Publisher:
Prabhat Prakashan
| Author:
Narmada Prasad Upadhyaya
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback

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184

मन से परछाईं दूर नहीं हो पाती, लेकिन जब जीवन की देहलीज पर साँझ दस्तक देती है, तब जीवन का अर्थ समझ आने लगता है। अपनी जिंदगी की शाम में कैफ भोपाली जीवन और उससे जुड़ी परछाईं इन दोनों का अर्थ इन पंक्तियों में समझा गए हैं— जिंदगी शायद इसी का नाम है, दूरियाँ, मजबूरियाँ, तन्हाइयाँ। क्या यही होती है शामे इंतजार, आहटें, घबराहटें, परछाइयाँ। जीवन की साँझ में ये परछाइयाँ हमें अपने अस्तित्व का स्मरण करा देती हैं। नंदकिशोर कहते हैं— सूरज ढला तो कद से ऊँचे हो गए साये, कभी पैरों से रौंदी थीं यही परछाइयाँ हमने। सोचता हूँ, ये परछाइयाँ साँझ होते-होते क्यों लंबी होने लगती हैं? इसलिए कि ये ढल जाने की बाट जोहती हैं। इनके रिश्ते ऊषा से नहीं होते, भोर से नहीं होते, सुबह के आँचल में छुपी आशाओं से नहीं होते। इनके रिश्ते उस रात से होते हैं, जिसकी प्रकृति से परछाईं की प्रकृति मिलती है। दोनों स्याह होते हैं, दोनों भटकाते हैं और दोनों उजास की पराजय में अपनी जय के उत्सव रचते हैं। रात का उत्सव अँधेरा है और परछाईं का पर्व वह ढलती साँझ है, जिसके आगमन पर उजास की धड़कनें मंद होने लगती हैं। परछाईं छलना है। उसकी परिणति अंधकार है। वह अपना उत्तराधिकार रात को सौंपती है। इसलिए भले परछाईं कुछ देर हमारे साथ-साथ चलकर हमें अपने साथ होने का आभास कराए, वह आश्वस्ति नहीं है, विश्वास नहीं है। —इसी संग्रह से|

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Description

मन से परछाईं दूर नहीं हो पाती, लेकिन जब जीवन की देहलीज पर साँझ दस्तक देती है, तब जीवन का अर्थ समझ आने लगता है। अपनी जिंदगी की शाम में कैफ भोपाली जीवन और उससे जुड़ी परछाईं इन दोनों का अर्थ इन पंक्तियों में समझा गए हैं— जिंदगी शायद इसी का नाम है, दूरियाँ, मजबूरियाँ, तन्हाइयाँ। क्या यही होती है शामे इंतजार, आहटें, घबराहटें, परछाइयाँ। जीवन की साँझ में ये परछाइयाँ हमें अपने अस्तित्व का स्मरण करा देती हैं। नंदकिशोर कहते हैं— सूरज ढला तो कद से ऊँचे हो गए साये, कभी पैरों से रौंदी थीं यही परछाइयाँ हमने। सोचता हूँ, ये परछाइयाँ साँझ होते-होते क्यों लंबी होने लगती हैं? इसलिए कि ये ढल जाने की बाट जोहती हैं। इनके रिश्ते ऊषा से नहीं होते, भोर से नहीं होते, सुबह के आँचल में छुपी आशाओं से नहीं होते। इनके रिश्ते उस रात से होते हैं, जिसकी प्रकृति से परछाईं की प्रकृति मिलती है। दोनों स्याह होते हैं, दोनों भटकाते हैं और दोनों उजास की पराजय में अपनी जय के उत्सव रचते हैं। रात का उत्सव अँधेरा है और परछाईं का पर्व वह ढलती साँझ है, जिसके आगमन पर उजास की धड़कनें मंद होने लगती हैं। परछाईं छलना है। उसकी परिणति अंधकार है। वह अपना उत्तराधिकार रात को सौंपती है। इसलिए भले परछाईं कुछ देर हमारे साथ-साथ चलकर हमें अपने साथ होने का आभास कराए, वह आश्वस्ति नहीं है, विश्वास नहीं है। —इसी संग्रह से|

About Author

कृतित्व : ‘समांतर लघुकथाएँ’, नरेंद्र कोहली : व्यक्‍त‌ित्व एवं कृतित्व’, ‘Sur : A Reticent Homage’ (संपादन), ‘एक भोर जुगनू की’, ‘अँधेरे के आलोक पुत्र’, ‘नदी तुम बोलती क्यों हो?’, ‘फिर फूले पलाश तुम’, ‘सुनो देवता’, ‘बैठे हैं आस लिये’, ‘प्रभास की सीपियाँ’, ‘परदेस के पेड़’, ‘अस्ताचल के सूर्य’ (ललित निबंध-संग्रह), ‘राधा माधव रंग रँगी’, ‘रामायण का काव्यमर्म’, पं. विद्यानिवास मिश्र के साथ ‘गीत-गोविंद’ और ‘रामायण के कलात्मक पक्ष’ पर कार्य। ‘भारतीय चित्रांकन परंपरा’, ‘पार रूप के’, ‘The Concept of Portrait’, ‘Kanheri Geet-Govinda’ (भारतीय कला)। पुरस्कार : ‘मुकुटधर पांडेय पुरस्कार’, ‘वागीश्‍वरी पुरस्कार’, ‘कलाभूषण सम्मान’, ‘शमशेर सम्मान’, ‘संत सिंगाजी सम्मान’ तथा ‘अक्षर आदित्य’ से सम्मानित। फेलोशिप : वर्ष 2003—चॉर्ल्स इंडिया वॉलेस ट्रस्ट, लंदन (ब्रिटिश काउंसिल); वर्ष 2008—शिमेंगर लेडर फेलोशिप, जर्मनी। संप्रति : सदस्य, वाणिज्यिक कर अपील बोर्ड, डी-33, चार इमली, भोपाल (म.प्र.)।

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