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Veerangana Jhalkari Bai (PB)
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नदी के द्वीप I Nadi Ke Dweep (HB)
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Tin Pahar (PB)
Publisher:
Rajkamal
| Author:
Krishna Sobti
| Language:
Hindi
| Format:
Hardback
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3-5 days
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9788126725960
Category Hindi
Category: Hindi
Page Extent:
‘साँझ की उदास-उदास बाँहें अँधिआरे से आ लिपटीं। मोहभरी अलसाई आँखें झुक-झुक आईं और हरियाली के बिखरे आँचल में पत्थरों के पहाड़ उभर आए। चौंककर तपन ने बाहर झाँका। परछाई का सा सूना स्टेशन, दूर जातीं रेल की पटरियाँ और सिर डाले पेड़ों के उदास साए। पीली पाटी पर काले अक्खर चमके ‘तिन-पहाड़,’ और झटका खा गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आ रुकी।’ इन्हीं वाक्यों के साथ नियति की यह कथा खुलती है। जया, तपन, श्री, एडना जिसके अलग-अलग छोर हैं। झील के अलग-अलग किनारे जिस तरह उसके पानी से जुड़े रहते हैं, उसी तरह आकांक्षा के भाव में एक साथ बँधे। आकांक्षा सुख की, चाह की, प्रेम की। ‘दार्जिलिंग के नीले निथरे आकाश,’ लाल छतों की थिगलियों, ‘पहरुओं से खड़े राजबाड़ी के ऊँचे पेड़ों,’ चक्करदार ‘सँकरी घुमावोंवाली चढ़ाइयों-उतराइयों,’ ‘हवाघर की बेंचों,‘ और गहरे उदास अँधेरों के बीच घूमती यह कथा जिन्दगी के अँधेरों-उजालों के बारे में तो बताती ही है, एक भीने यात्रा-वृत्तान्त का भी अहसास जगाती है। लेकिन इस उदास ‘नोट’ के साथ – ‘जिसकी साड़ी का टुकड़ा भर ही बच सका, वह इन सबकी क्या होती होगी…क्या होती होगी।’
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Description
‘साँझ की उदास-उदास बाँहें अँधिआरे से आ लिपटीं। मोहभरी अलसाई आँखें झुक-झुक आईं और हरियाली के बिखरे आँचल में पत्थरों के पहाड़ उभर आए। चौंककर तपन ने बाहर झाँका। परछाई का सा सूना स्टेशन, दूर जातीं रेल की पटरियाँ और सिर डाले पेड़ों के उदास साए। पीली पाटी पर काले अक्खर चमके ‘तिन-पहाड़,’ और झटका खा गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आ रुकी।’ इन्हीं वाक्यों के साथ नियति की यह कथा खुलती है। जया, तपन, श्री, एडना जिसके अलग-अलग छोर हैं। झील के अलग-अलग किनारे जिस तरह उसके पानी से जुड़े रहते हैं, उसी तरह आकांक्षा के भाव में एक साथ बँधे। आकांक्षा सुख की, चाह की, प्रेम की। ‘दार्जिलिंग के नीले निथरे आकाश,’ लाल छतों की थिगलियों, ‘पहरुओं से खड़े राजबाड़ी के ऊँचे पेड़ों,’ चक्करदार ‘सँकरी घुमावोंवाली चढ़ाइयों-उतराइयों,’ ‘हवाघर की बेंचों,‘ और गहरे उदास अँधेरों के बीच घूमती यह कथा जिन्दगी के अँधेरों-उजालों के बारे में तो बताती ही है, एक भीने यात्रा-वृत्तान्त का भी अहसास जगाती है। लेकिन इस उदास ‘नोट’ के साथ – ‘जिसकी साड़ी का टुकड़ा भर ही बच सका, वह इन सबकी क्या होती होगी…क्या होती होगी।’
About Author
कृष्णा सोबती
कृष्णा सोबती का जन्म 18 फरवरी, 1925 को गुजरात के उस हिस्से में हुआ जो अब पाकिस्तान में है। अपनी लम्बी साहित्यिक यात्रा में कृष्णा सोबती ने हर नई कृति के साथ अपनी क्षमताओं का अतिक्रमण किया। निकष में विशेष कृति के रूप में प्रकाशित डार से बिछुड़ी से लेकर मित्रो मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, बादलों के घेरे, सूरजमुखी अँधेरे के, ज़िन्दगीनामा, ऐ लड़की, दिलो-दानिश, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान, चन्ना, हम हशमत, समय सरगम, शब्दों के आलोक में, जैनी मेहरबान सिंह, सोबती-वैद संवाद, लद्दाख : बुद्ध का कमण्डल, मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही की तलाश में, लेखक का जनतंत्र और मार्फ़त दिल्ली तक उनकी रचनात्मकता ने जो बौद्धिक उत्तेजना, आलोचनात्मक विमर्श, सामाजिक और नैतिक बहसें साहित्य-संसार में पैदा कीं, उनकी अनुगूँज पाठकों में बराबर बनी रही।
ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादेमी पुरस्कार और साहित्य अकादेमी की महत्तर सदस्यता के अतिरिक्त अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों और अलंकरणों से शोभित कृष्णा सोबती कम लिखने को ही अपना परिचय मानती थीं, जिसे स्पष्ट इस तरह किया जा सकता है कि उनका ‘कम लिखना’ दरअसल ‘विशिष्ट’ लिखना था।
निधन 25 जनवरी, 2019 को दिल्ली में हुआ।
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